Save Environment
तपती धरती बढ़ते संकट, खत्म होते जंगल और हवा में घुलते प्रदूषण के जहर से शिकायत तो सभी को है पर पर्यावरण के बिगड़ते हालातों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास सरकारी अमले में ही नहीं आमजन में भी कम ही दिखता है, जबकि पर्यावरण का मुद्दा समग्र समुदाय से जुड़ा मुद्दा है। उचित योजनाओं के साथ-साथ धरती पर उपलब्ध संसाधनों का संयमित उपभोग और सही जीवनशैली ही इस व्यापक विषय को प्रभावी रूप से सम्बोधित कर सकती है। यहाँ तक कि पर्यावरण संरक्षण की सरकारी या गैर सरकारी पहल भी तभी कारगर हो सकती है जब आम लोगों में समझ और संवेदनशीलता आए। क्योंकि पर्यावरण को बिगाड़ने और आबोहवा को इस हद तक जहरीली बनाने के लिए आज के दौर की जीवनचर्या भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। इसे दिखावे की संस्कृति कहें या आरामतलबी जुनून। अब जरूरतों पर इच्छाएँ भारी पड़ रही हैं। बिना जरूरत के वाहन खरीदने और कदम भर भी पैदल न चलने की जीवनशैली हमारे भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रही है। घर में हर जरूरी-गैर-जरूरी सुविधा को जुटाना अब महानगरों में ही नहीं गाँवों कस्बों में भी आम है। गौर करने वाली बात है कि ऐसी सुख-सुविधाओं के आदी हो चले लोग पहले इन चीजों के बिना भी सहज जीवन जीया करते थे। आधुनिक जीवनशैली से जुड़ी ऐसे तमाम आदमी धरती पर अतिरिक्त बोझ बढ़ाने वाले तो हैं ही, पर्यावरण को भी काफी हद दर्जे तक नुकसान पहुँचा रहे हैं। दरअसल, भोगवादी संस्कृति वाली इंसानी आदतों में भी कुदरत को कुपित किया है। असीमित मानवीय जरूरतों और गतिविधियों ने धरती, जल और वायु सभी को प्रदूषित कर दिया है। जहाँ पेड़-पौधों के पूजन की परम्परा रही है वहाँ पहाड़ से लेकर रेगिस्तान तक, देश के हर हिस्से में प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन हो रहा है। जबकि पर्यावरण सहेजने के लिए जागरूकता और जिम्मेदारी का भाव रोजमर्रा की आदतों का हिस्सा भी जरूरी है। इस जिम्मेदारी का सबसे पहला पड़ाव पर्यावरण के दोहन को रोकने का ही है।
निःसन्देह यह तभी सम्भव है जब हमारी आवश्यकताएँ सीमित हों। विचारणीय है कि जिस भारतीय संस्कृति में रि-साइकिल न हो सकने वाली किसी चीज के प्रयोग का प्रावधान ही नहीं था, वहाँ अब यूज एंड थ्रो कल्चर तेजी से बढ़ रहा है। धरती की छाती पर बढ़ते कचरे के पहाड़ इसका सबूत हैं। यूज एंड थ्रो की संस्कृति ने प्लास्टिक की खपत भी बढ़ा दी है। सामाजिक आयोजनों से लेकर घरेलू जरूरतों तक काम में लिए जाने वाले ऐसे अधिकतर उत्पाद प्लास्टिक के ही बने होते हैं। कुछ समय पहले सामने आए अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2047 तक भारत में कूड़े का उत्पादन पाँच गुना बढ़ जाएगा। जिस देश में कूड़ा-प्रबन्धन पहले से ही बड़ी समस्या बनी हुई है, वहाँ आने वाले समय में कचरे का उत्पादन और बढ़ना चिंतनीय है। एक ओर विकास और औद्योगीकीकरण के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हुआ है तो दूसरी ओर बदलती दिनचर्या ने धरती की आबोहवा को बदलने का काम किया है। हम प्रकृति से लेना तो सीख गए हैं पर उसे कुछ भी लौटाने की समझ ही गुम है। निःसंदेह प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति का सामर्थ्य रखती है पर इंसान तो सब कुछ छीनने में लगा है। होना तो चाहिए था भारत जैसे तेजी से बढ़ती आबादी वाले देश में प्रकृति को सहेजने के अतिरिक्त प्रयास किए जाते, लेकिन इंसान की सांसों के लिए शुद्ध हवा देने वाले पेड़ भी संरक्षण के अभाव में दम तोड़ देते हैं।
तपती धरती बढ़ते संकट, खत्म होते जंगल और हवा में घुलते प्रदूषण के जहर से शिकायत तो सभी को है पर पर्यावरण के बिगड़ते हालातों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास सरकारी अमले में ही नहीं आमजन में भी कम ही दिखता है
Posted on
December 15, 2017